मिर्जा गालिब के शेर आगरा के लोगों की जुबानों पर
आगरा। गालिब को 224 वीं जयंती पर उनके शहर आगरा ने किया याद। वह उर्दू भाषा के सबसे महान कवियों में से एक के रूप में जाने जाते हैं। मूल रूप से एक तुर्की कुलीन वंश के गालिब ने 10 साल की उम्र में छंदों की रचना करना शुरू कर दिया था। उन्होंने 1857 तक अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के लिए उस्ताद के रूप में कार्य किया था।
उनका जन्म आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग ख़ान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ख़ान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ख़ान उनके दो पुत्र थे।जब ग़ालिब छोटे थे तो एक नव-मुस्लिम-वर्तित ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सान्निध्य में रहकर ग़ालिब ने फ़ारसी सीखी।
हालाँकि ग़ालिब ने अपनी फ़ारसी छंदों को अपने काम का सबसे पुरस्कृत हिस्सा माना किन्तु उनके उर्दू छंद सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं । उनका ‘ यह दीवान ‘ पहली बार 1841 में प्रकाशित हुआ था। फारसी गद्य में उनके काम का एक पूरा संस्करण उनकी मृत्यु से ठीक पहले प्रकाशित हुआ था।